Thursday, December 11, 2008

Ek Saathi Aur Bhi Tha...

एक साथी और भी था

चलते चलते क्यों भूल जाते हो,
अपनी जिंदगी में य़ू डूब जाते हो,
की याद नहीं रहता तुम्हे,
एक साथी और भी था...

साथ चले थे, साथ बढ़े थे,
मंजिल एक थी, रस्ते अलग थे,
फिर भी सोचा न था की भूल जाओगे,
की एक साथी और भी था...

रुका रहा वो तुम्हारे लिए,
देख रहा था रह तुम्हारी,
आओगे शायद तुम लौट कर,
वो ऐसा... एक साथी और भी था...

अब इंतज़ार और नहीं होता,
नयी मंजिलें बुला रही है,
नयी दुनिया खड़ी है सामने,
फिर भी रुका हुआ हूँ मैं,
वो एक साथी मैं ही था...

-अनूप

2 comments:

Priyanka said...

After long time Anoop... :)
Good to have you back in literary mood.. beautiful words.. keep writing..!!

anoop... said...

Ya, its been a long time... now trying to continue with this mood for sometime.