एक मुसाफिर बन निकला था मैं,
चुनी थी अपनी राहे,
बढ़ चला था प्रगति पथ पर,
देखी कई नयी दिशाएं|
चलते हुए जा पहुचा वहां पर,
जहाँ सूरज डूबता था,
लेकिन पाया की वहां पर भी भौत उजाला था,
खो न जाऊ चका-चोंध में, डर सा लगने लगा,
लेकिन साथ ही साथ नए सपने देखने लगा|
फिर सोचा की शायद यही मंजिल है,
और रोक लिए अपने कदम,
रहा कुछ दिन वहां अकेला,
लेकिन मन भर गया जल्द ही,
लगा की यह वो मंजिल नहीं जिसकी मुझे तलाश है|
फिर चल पड़ा रह पर,
फिर मिली मंजिल, खड़ा हूँ मंजिल के सामने,
लेकिन देखता हूँ की रह ले आयइ है उस ही जगह पर,
जहाँ से की थी सफ़र की शुरुआत,
बस रस्ते नए है, रूप नया है|
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